Monday, 6 February 2012

चोट गहरी दिल


चोट गहरी दिल पे जब  सहता  हूँ  मैं |
तब कहीँ जा कर ग़ज़ल कहता हूँ मैं ||

इक  नदी   सा रोज़  खोता हूँ  वुजूद |
जब  समुंदर की तरफ़ बहता  हूँ  मैं ||

खुश  ख़यालों के सफ़र में रात  दिन |
तेरे     पीछे    भागता   रहता  हूँ  मैं ||

तू नहीं मिलता तो बस थक हार कर |
फिर  किसी  मीनार सा ढहता हूँ   मैं ||

दूसरों  को  दूँ  खुशी मैं  किस   तरह |
हर  घड़ी  ये  सोचता   रहता  हूँ   मैं ||   

डा ०  सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 5 February 2012

उलझने


उलझने   ख़त्म   होती   नहीं   रोज़  की  उलझने  और  पैदा  करें  उलझने |
आप   बेकार   में   ही  उलझने   लगे  बात  एसी  करो  जो  मिटें  उलझने ||

दूसरों  की  खुशी  है  हमारी  खुशी  और  ग़म  दूसरों  का  भी  अपना  हुआ |
मन हसद से हो ख़ाली तो इंसान का बाल -बांका न कुछ कर सकें उलझने ||

काम  दुन्या में कुछ भी नहीं आपको शौक ये भी मगर आपका कम  नहीं |
सामने   दूसरों    के   हमेशा   खड़ी   हर   घड़ी  आप  करते  रहें   उलझने ||

कोई  भी तो यहाँ पर मुक़म्मल नहीं और है भी तो  वो    है   अकेला  ख़ुदा |
मिलने  एसे  मसीहा  से मैं भी चलु पास आने    से  जिसके   डरें  उलझने ||

तनहा  –तनहा  जियो  ज़िंदगी  में सदा क़ैद  होकर  रहो कोठरी  में  कहीं |
ज़िहन ख़ाली रहेगा अगर आपका फिर  तो  तेजी  से  फूले  फलें उलझने ||

हम तुम्हारी समझते रहें उलझने   उलझने  तुम  हमारी   समझते   रहो |
ख़त्म हों आपकी ख़त्म मेरी भी  हों  दूर   सबसे   हमेशा   रहें    उलझने ||

रोज़ अपने ख़यालों को  कहते   रहो  दूसरों   के  ख़यालों  को  पढ़ते  रहो |
फिर चले आइयेगा मिरे पास में जब   कभी   भी तुम्हारी  बढ़ें   उलझने ||   

डा० सुरेन्द्र  सैनी   
  

Monday, 12 December 2011

दुनिया इक चिड़िया


दुनिया इक चिड़िया घर  है |
सबको  फँसने  का  डर  है ||

बारिश  में  भीगे   है  सर |
नीली   छतरी  सर पर है ||

अफ़सर बन कर भूला वो |
माँ  का  टूटा  सा   घर  है ||

ट्यूशन  पढ के  बच्चे  का |
फिर  क्यूँ  ज़ीरो  नंबर  है ?

मुश्किल  में  सारे  हुक्काम |
इक  बूढ़ा  अनशन   पर  है ||

इस बिगड़ी हुई हालत   की |
ज़िम्मेदारी    सब   पर   है ||

रहता    है    जो     पोशीदा |
वो    कैसा   ताक़तवर   है ?

झगड़ा    दो   परिवारों  का |
बस  खिड़की   के  ऊपर है ||

मेअद:  क्यूँ  होगा  गड़बड़ ?
जब   आटे   में   चोकर  है ||

क़र्ज़े     में    है    सर   डूबा  |
फिर  भी  ये   आडम्बर   है ||

पनघट गुम पनिहारिन गुम |
ख़ाली    ख़ाली    गागर    है ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

मुझसे रूखी बात


मुझसे     रूखी    बात    न   कर |
ज़ुल्मों   की   बरसात   न   कर ||

बद्कारों   का    साथ    न   कर |
ओछी   अपनी   ज़ात   न  कर ||

दिन  को  दिन  कह रात न कर |
झगड़ा    यूँ     बेबात   न    कर ||

ख़ुद्दारी     कुछ    सीख     मियाँ |
सबके    आगे    हाथ    न   कर ||

उसकी   भी   सुन    बात   कोई |
अपनी - अपनी   बात   न  कर ||

संसद   के   अन्दर    तू   कभी |
 धक्का  – मुक्की लात न कर ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

  

Thursday, 1 December 2011

ग़म का बोझ


ग़म  का  बोझ उठा कर रख |
मन का बाग सजा कर रख ||

घर  में  दीप  जला कर रख |
दिल में प्यार बसा कर रख ||

बीमारी   है    अगर   कोई |
सब के बीच बता कर रख || 

कल की फ़िक्र नहीं तुझको |
कुछ तो यार बचा कर रख || 

कान्धा   चार   जाने   दे  दें |
इतना  नाम कमा कर रख || 

ये   सरकार     नहीं   जागी |
सच का शोर मचा कर रख || 

सुन  कर  लोग  हँसेंगे  सब |
दिल का दर्द छुपा कर रख ||

जब तक पेश चले तब तक |
सब  से बात बना कर रख || 

डा०  सुरेन्द्र  सैनी  

Wednesday, 30 November 2011

टीस जब दिल में


टीस  जब दिल  में उठे कोई ग़ज़ल  कह लेना |
आग  सीने  में  लगे  कोई   ग़ज़ल  कह  लेना ||

प्यार  बांटों  सदा  नफ़रत से क्या मिला भाई |
घर किसी का जो बसे  कोई  ग़ज़ल कह लेना ||

देख कर जिसकी आँखों में सुकूँ   मिलता  हो |
एसा  रस्ते  में मिले कोई ग़ज़ल   कह  लेना || 

तीरगी को मिटाने जब खुला  परचम लेकर |
हौसलामंद  चले  कोई   ग़ज़ल   कह  लेना || 

ज़िंदगी में किसी की आँख को रोशन करिये |
जब दुआ उसकी फले कोई ग़ज़ल कह लेना || 

लाख गुलचीं हो मगर अपनी हरी डाली पर |
फूल इतरा के खिले कोई ग़ज़ल कह लेना || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 27 November 2011

हम पे महंगाई


हम    पे    महंगाई    बंदूक़    ताने    हुए |
कौन   से   पाप   हमसे    न   जाने   हुए ||

हम से उजरत का मांगे हिसाब आजकल |
बच्चे    अब    तो    हमारे   सयाने   हुए ||

घोर   कंक्रीट   के    जंगलों     में   सभी |
आसमां   तक   उठे     आशियाने   हुए ||

सारी  दुनिया  में  हैं बस  हमीं आम  से |
लोग   हैं   एक   से    एक   माने     हुए ||

आज  तनख़्वाह   बेशक  ज़ियादा  सही |
चार   दाने   तो   मुश्किल    जुटाने  हुए ||

एक  का  नोट   भी  अब  चला  जाएगा |
बंद  चार    आने  क्या  आठ  आने  हुए ||

अब  ग़ज़ल  में  नई  बात  मैं क्या कहूं ?
सारे   मफ़हूम   तो   अब    पुराने  हुए ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी