Sunday, 27 November 2011

हम पे महंगाई


हम    पे    महंगाई    बंदूक़    ताने    हुए |
कौन   से   पाप   हमसे    न   जाने   हुए ||

हम से उजरत का मांगे हिसाब आजकल |
बच्चे    अब    तो    हमारे   सयाने   हुए ||

घोर   कंक्रीट   के    जंगलों     में   सभी |
आसमां   तक   उठे     आशियाने   हुए ||

सारी  दुनिया  में  हैं बस  हमीं आम  से |
लोग   हैं   एक   से    एक   माने     हुए ||

आज  तनख़्वाह   बेशक  ज़ियादा  सही |
चार   दाने   तो   मुश्किल    जुटाने  हुए ||

एक  का  नोट   भी  अब  चला  जाएगा |
बंद  चार    आने  क्या  आठ  आने  हुए ||

अब  ग़ज़ल  में  नई  बात  मैं क्या कहूं ?
सारे   मफ़हूम   तो   अब    पुराने  हुए ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 


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