मर ही गया कहीं तेरे अन्दर का आदमी |
दरअस्ल हो गया है तू पत्थर का आदमी ||
पैसा कमा के खा रहा ऊपर का आदमी |
बेजा मज़ा उठा रहा अवसर का आदमी ||
जब सांप घर में पल रहे फिर भी हो सोचते |
घर में नक़ब लगा गया बाहर का आदमी ||
खैरात बंट रही कहीं ये उसका शोर है |
सड़कों पे जमा हो गया घर घर का आदमी ||
दो चार दांव पेंच तू खाने के सीख ले |
मुझको सलाह दे रहा दफ़्तर का आदमी ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
पिलाया ख़ूब पानी पर दिए थोड़े निवाले हैं |
इसी ग़ुरबत में हमने भी यें अपने बच्चें पाले हैं ||
बड़े इल्ज़ाम लगते थे अबस में इन अंधेरों पर |
मगर अब शक़ के घेरे में उजालें ही उजालें हैं ||
ग़रीबी, भुखमरी, दमतोड़ महगांई या भ्रष्टाचार |
मसायल आपके होंगे रिसालों के मसालें हैं ||
बिना पैसे दिए ही केस निबटाया कचहरी में |
ज़रा गिन कर बताओ एसी कुल कितनी मिसाले हैं ?
मुझे इनआम अच्छा मिल गया है बाप होने का |
जवाँ बच्चों को उनके आज हिस्से बाँट डाले हैं ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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