उलझने ख़त्म होती नहीं रोज़ की उलझने और पैदा करें उलझने |
आप बेकार में ही उलझने लगे बात एसी करो जो मिटें उलझने ||
दूसरों की खुशी है हमारी खुशी और ग़म दूसरों का भी अपना हुआ |
मन हसद से हो ख़ाली तो इंसान का बाल -बांका न कुछ कर सकें उलझने ||
काम दुन्या में कुछ भी नहीं आपको शौक ये भी मगर आपका कम नहीं |
सामने दूसरों के हमेशा खड़ी हर घड़ी आप करते रहें उलझने ||
कोई भी तो यहाँ पर मुक़म्मल नहीं और है भी तो वो है अकेला ख़ुदा |
मिलने एसे मसीहा से मैं भी चलु पास आने से जिसके डरें उलझने ||
तनहा –तनहा जियो ज़िंदगी में सदा क़ैद होकर रहो कोठरी में कहीं |
ज़िहन ख़ाली रहेगा अगर आपका फिर तो तेजी से फूले फलें उलझने ||
हम तुम्हारी समझते रहें उलझने उलझने तुम हमारी समझते रहो |
ख़त्म हों आपकी ख़त्म मेरी भी हों दूर सबसे हमेशा रहें उलझने ||
रोज़ अपने ख़यालों को कहते रहो दूसरों के ख़यालों को पढ़ते रहो |
फिर चले आइयेगा मिरे पास में जब कभी भी तुम्हारी बढ़ें उलझने ||
डा० सुरेन्द्र सैनी